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Monday, June 8, 2015

रिश्ते : अपने पराये

रिश्ते :

खून के रिश्तों का, 
खून होते देखा है हमने..


अपनों को पराया,
बनते हुए देखा है हमने..


अनजान रिश्तों को भी,
परवान चढ़ते देखा है हमने..


प्यार के रिश्तों को,
दिल की गहराइयों से..


सिंचित होते हुए..
फलते-फूलते देखा है हमने..

© गजेन्द्र बिष्ट 

https://m.facebook.com/bisht.gs


Sunday, October 25, 2009

गणेशजी की दुर्गति… क्या यही है भक्ति और श्रद्धा !!

मुंबई में गणेश उत्सव के बाद गणेश की मूर्तियों का क्या हाल होता है ! भक्ति और श्रद्धा गई भाड़ में, उत्सव मना लिया और हमारा फर्ज खत्म !


गणेश विसर्जन के दिन तक जिस तरह भक्तों में भगवान के लिए प्रेम उमड़ता है, उसका नतीजा ये होता है ! क्या इसलिए भगवान के प्रति इतना प्रेम दिखाया जाता है ?

मूर्तियां भगवान का एक रूप हैं या बस पत्थर-मिट्टी ! अगर उन्हें कूड़े के ढेर पर ही फेंकना होता है, तो इतना सब करने की जरूरत ही क्या है !

क्या आप वाकई चाहते हैं कि इस तरह आपके भगवान को बुल्डोजर घसीट कर दूर फेंक दे ? बस यही सम्मान है !

जिस गणपति बप्पा को बुलाने के लिए हम दिन रात उन्हें याद करते हैं, उन्हें इसलिए बुलाया जाता है?

यह मूर्ति क्या आपको नहीं कह रही है इस हालत पर भगवान भी रोते होंगे? पूछते होंगे अपने भक्तों से.. ये गत करने के लिए जल्दी बुलाते हो मुझे।


इन सवालों के जवाब हमें खुद से मांगने होंगे। बात सिर्फ इन पत्थर-मिट्टी की मूर्तियों की नहीं, हमारी सोच की है। श्रद्धा की है। भक्ति की है।

इसके अतिरिक्त एक पहलू और भी है। पत्थर-मिट्टी की ये मूर्तियाँ हर साल बनाई जाती हैं और यों ही नदी समुद्र में विसर्जित कर दी जाती हैं। इनके निर्माण में कैमिकल आदि नुकशानदेह पदार्थों का प्रयोग होता है जिससे नदी समुद्र के वातावरण को भी बहुत नुकशान होता है, सफाई के दौरान इन विसर्जित मूर्तियों से उत्पन्न कूड़े से जमीन पर भी पर्यावरण दुषित हो जाता है।

मैं ये नहीं कहता कि मूर्तियाँ का निर्माण बन्द हो बल्कि मैं तो ये मानता हूँ कि मूर्तियों को अपने घर में स्थापित कर उनकी पूजा करनी चाहिए नकि उपरोक्त ढंग से दुर्गति, यही सच्ची श्रद्धा भक्ति होगी।

अंत में यही कहूँगा कि ये तो केवल एक मुद्दा है ऐसे अनेक मुद्दे हैं जहाँ हमें लकीर के फकीर हो कर खुले दिमाग से सोचने चिंतन करने की जरूरत है। इस मुद्दे पर आप लोगों की राय जानने के लिए उत्सुकता बनी रहेगी

गजेन्द्र सिंह बिष्ट

Thursday, October 8, 2009

नन्दादेवी राजजात - उत्तराखंड की एक ऐतिहासिक व धार्मिक यात्रा




नन्दादेवी राजजात उत्तराखंड की एक ऐसी ऐतिहासिक धरोहर है, जो भूमि की सांकृतिक विरासत की महक चारों ओर बिखेर देती है। जात का अर्थ होता है देवयात्रा अतः नन्दा राजजात का अर्थ है राज राजेश्वरी नन्दादेवी की यात्रा। यह यात्रा इष्ट देव भूमि में मानव और देवताओं के संबंधों कर अनूटी दास्तान है। यह यात्रा पहाड़ के कठोर जीवन का आयना है। तो पहाड़ी में ध्याणी (विवाहित बेटी-बहन) के संघर्षों की कहानी भी है। राजजात की शुरूवात आठवीं सदी के आसपास हुई बताई जाती है। यह वह काल था जब आदि गुरू शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों में चार पीठों की स्थापना की थी।


लोक इतिहास के अनुसार नन्दा गढ़वाल के राजाओं के साथ-साथ कुँमाऊ के कत्युरी राजवंश की ईष्टदेवी थी। ईष्टदेवी होने के कारण नन्दादेवी को राजराजेश्वरी कहकर सम्बोधित किया जाता है। नन्दादेवी को पार्वती की बहन के रुप में देखा जाता है परन्तु कहीं-कहीं नन्दादेवी को ही पार्वती का रुप माना गया है। नन्दा के अनेक नामों में प्रमुख हैं शिवा, सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी। पूरे उत्तराँचल में समान रुप से पूजे जाने के कारण नन्दादेवी के समस्त प्रदेश में धार्मिक एकता के सूत्र के रुप में देखा गया है।

रूपकुण्ड के नरकंकाल, बगुवावासा में स्थित आठवीं सदी की सिद्ध विनायक भगवान गणेश की काले पत्थर की मूर्ति आदि इस यात्रा की ऐतिहासिकता को सिद्ध करते हैं, साथ ही गढ़वाल के परंपरागत नन्दा जागरी (नन्दादेवी की गाथा गाने वाले) भी इस यात्रा की कहानी को बयॉं करते हैं। नन्दादेवी से जुडी जात (यात्रा) दो प्रकार की हैं। वार्षिक जात और राजजात। वार्षिक जात प्रतिवर्ष अगस्त-सितम्बर मॉह में होती है। जो कुरूड़ के नन्दा मन्दिर से शुरू होकर वेदनी कुण्ड तक जाती है और फिर लौट आती है, लेकिन राजजात 12 वर्ष या उससे अधिक समयांतराल में होती है। मान्यता के अनुसार देवी की यह ऐतिहासिक यात्रा चमोली के नौटीगाँव से शुरू होती है और कुरूड़ के मन्दिर से भी दशोली और बधॉण की डोलियॉं राजजात के लिए निकलती हैं। इस यात्रा में लगभग २५० किलोमीटर की दूरी, नौटी से होमकुण्ड तक पैदल करनी पड़ती है। इस दौरान घने जंगलों पथरीले मार्गों, दुर्गम चोटियों और बर्फीले पहाड़ों को पार करना पड़ता है।


अलग-अलग रास्तों से ये डोलियॉं यात्रा में मिलती है। इसके अलावा गाँव-गाँव से डोलियॉं और छतौलियॉं भी इस यात्रा में शामिल होती है। कुमाऊँ (कुमॉयू) से भी अल्मोडा, कटारमल और नैनीताल से डोलियॉं नन्दकेशरी में आकर राजजात में शामिल होती है। नौटी से शुरू हुई इस यात्रा का दूसरा पड़ाव इड़ा-बधाणीं है। फिर यात्रा लौठकर नौटी आती है। इसके बाद कासुंवा, सेम, कोटी, भगौती, कुलसारी, चैपडों, लोहाजंग, वाँण, बेदनी, पातर नचौणियाँ से विश्व-विख्यात रूपकुण्ड, शिला-समुद्र, होमकुण्ड से चनण्यॉंघट (चंदिन्याघाट), सुतोल से घाट होते हुए नन्दप्रयाग और फिर नौटी आकर यात्रा का चक्र पूरा होता है। यह दूरी करीब 280 किमी. है।


इस राजजात में चौसिंग्या खाडू़ (चार सींगों वाला भेड़) भी शामिल किया जाता है जोकि स्थानीय क्षेत्र में राजजात का समय आने के पूर्व ही पैदा हो जाता है, उसकी पीठ पर रखे गये दोतरफा थैले में श्रद्धालु गहने, श्रंगार-सामग्री अन्य हल्की भैंट देवी के लिए रखते हैं, जोकि होमकुण्ड में पूजा होने के बाद आगे हिमालय की ओर प्रस्थान कर लेता है। लोगों की मान्यता है कि चौसिंग्या खाडू़ आगे बिकट हिमालय में जाकर लुप्त हो जाता है नंदादेवी के क्षेत्र कैलाश में प्रवेश कर जाता है।

वर्ष 2000 में इस राजजात को व्यापक प्रचार मिला और देश-विदेश के हजारों लोग इसमें शामिल हुए थे। राजजात उत्तराखंड की समग्र संस्कृति को प्रस्तुत करता है। इसी लिये 26 जनवरी 2005 को उत्तरांचल राज्य की झांकी राजजात पर निकाली गई थी। पिछले कुछ वर्षों से पयर्टन विभाग द्वारा रूपकुण्ड महोत्व का आयोजन भी किया जा रहा है। स्थानीय लोगों ने इस यात्रा के सफल संचालन हेतु श्री नन्दादेवी राजजात समिति का गठन भी किया है। इसी समिति के तत्त्वाधान में नन्दादेवी राजजात का आयोजन किया जाता है। परम्परा के अनुसार वसन्त पंचमी के दिन यात्रा के आयोजन की घोषणा की जाती है। इसके पश्चात इसकी तैयारियों का सिलसिला आरम्भ होता है। इसमें नौटी के नौटियाल एवं कासुवा के कुवरों के अलावा अन्य सम्बन्धित पक्षों जैसे बधाण के १४ सयाने, चान्दपुर के १२ थोकी ब्राह्मण तथा अन्य पुजारियों के साथ-साथ जिला प्रशासन तथा केन्द्र एवं राज्य सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा मिलकर कार्यक्रम की रुपरेखा तैयार कर यात्रा का निर्धारण किया जाता है।

सन् 2012 में राजजात होनी थी परन्तु इस वर्ष में अधिमाष पड़ रहा है जिस कारण वर्ष 2013 में आगामी राजजात होनी तय हुई है। आशा करते हैं कि संचार सड़क माध्यमों के पहले की अपेक्षा अधिक सुगम होने और इंटरनेट पर इस धार्मिक यात्रा की जानकारी बिशेषकर हिन्दी भाषा में उपलब्धता बहुत लोगों को इस व्यापक, ऐतिहासिक धार्मिक यात्रा में शामिल होने जानने के लिए आकर्षित करेगा। शुभकामनाओं के साथ - गजेन्द्र बिष्ट.


{ मान्यताओं के अनुसार राजजात तब होती है जब देवी का दोष (प्रकोप) लगने के लक्षण दिखाई देते हैं। ध्याणी (विवाहित बेटी-बहन) भूमिया देवी ऊफराई की पूजा करती है इसे मौड़वी कहा जाता है। ध्याणीयां यात्रा निकालती है, जिसे डोल जातरा कहा जाता है। कासुंआ के कुंवर (राज वंशज) नौटी गाँव जाकर राजजात की मनौती करते हैं। कुंवर रिंगाल की छतोली (छतरी) और चौसिंग्या खाडू़ (चार सींगों वाला भेड़) लेकर आते हैं। चौसिंगा खाडू का जन्म लेना राजजात की एक खास बात है। नौटियाल और कुँवर लोग नन्दा के उपहार को चौसिंगा खाडू की पीठ पर होमकुण्ड तक ले जाते हैं। वहाँ से खाडू अकेला ही आगे बढ़ जाता है। खाडू के जन्म साथ ही विचित्र चमत्कारिक घटनाये शुरु हो जाती है। जिस गौशाला में यह जन्म लेता है उसी दिन से वहाँ शेर आना प्रारम्भ कर देता है और जब तक खाडू़ का मालिक उसे राजजात को अर्पित करने की मनौती नहीं रखता तब तक शेर लगातार आता ही रहता है। }